खाली
खुद ही से दूर रहता हूं आज कल
मेरे इस गम के दरिए के किनारे कभी आकर
कुछ बूंदे बाहर छलकाओ ना काफ़िर
दास्तां ए जिन्दगी कुछ ऐसी है
नाकामयाबी, निराशा, और बदनीसिबी की गर्दी है
ऐसी भीड़ का भी होना क्या होना है
जहां न मुक्कमल कुछ है, सब कुछ महरूम है
क्यों लगता है ऐसा जब तू दिल से दूर है।
जिंदगी तो नही पर जीने को मजबूर है
उस दरिए की क्या किम्मत क्या उसका वजूद है
जिसके साहिल पर तेरी मौजूदगी न नसीब हो।
सवालों का कारवां यू कायम सा हो गया है
जवाबों की तलाश में मन तेरा होगया है
काया हूं मैं पर साया है तू
खुद ही को खो कर क्या पाया हूं मैं
विचार और विमर्श बस चलता रहेगा
ख्वाबो के नदिया तो अपनी हमराह है
उसमे गोते लगाना तो चलता रहेगा
खुशनसीब हूं मैं, जो मुझे तैरना नहीं आता
इसी बहाने तुझमें डूबने का मौका तो रहेगा
खाली सा महसूस मैं अभी करता हूं
चुकी, नज़्म लिखने की ख्वाहिश रखता हूं
एक छोटासा हिस्सा जो मुझ में नहीं है
बस उसे ढूंढने का उत्साह रखता हूं
Umda likha hai 👏
ReplyDeletethank you Ayushi
DeleteKhushnaseeb hu mei muje terna nahi aata, iss bahane tujme dhoob sakta hu.) jaani yaha lut liya
ReplyDeletedhanyawad bhai
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