रविवार


12 बजे है,सूरज की किरणे धरती को जुलसा रही है
अब अलार्म नही घमोरिया नींद से उठाती है।
पता नही अपने ही कपड़ो से क्या दुश्मनी है
कमबख्त 5 मिनट में देह से अपने आप उतर जाती है।
पसीना पोछते हुए नहाने जाते है, 
बाहर आकर हम फिर भीग जाते है
कॉटन का वो लोअर और अमूल की बनियान
यही दो है बस दिल के हमदर्द है
पूरी अलमारी को मानो जैसे इनसे ईर्ष्या है,
यह जुलस्ती गर्मी क्या इन्हे काम जला रही है।
कुछ करने का मन नहीं, सारा दिन बस पसरे रहो
घर पर पड़े फर्नीचर पूछने लगे, क्या हमसे कोई स्पर्धा है?
घरवाले पता नही कैसे सुबह सुबह उठ जाते है,
हम तो हमारी जिम्मेदारियां भूलते जा रहे ह, इन्हे रोज नई याद आजाती है!
आलस यह जीवित मनुष्य की शैय्या है!पर हम भी बेबाक है
इसी बहाने योगा हो जाता है शवासन जो खास है।
दाल चावल के अलावा अब कुछ नहीं भाता
काम टालने में पूरा दिन निकल जाता है
गर्मियों में रविवार कुछ इस तरह से बिताया जाता है।

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