कुछ कमी सी


कुछ कमी सी है
आंखो में नमी सी है
बद्री घनी छाई है
बस बर्खा की कमी सी है
उन आंखों में है आसमान
नीली उनकी छवि है
झुल्फ घनी है अरण्य सी
हरियाली की कमी सी है
झील सी आखें है 
या गहरा समंदर है
डूबने की लालसा है
पर खारा वह भीतर है
खुशियों के लिफाफे का
बरसों से इंतजार सा है
चौखट से निकलते देखी
चुकीं पते मैं कमी सी है
वो सब क्यों नहीं है मेरा
आशा जिसकी न जाने कभी से है
बैठे है दोनो इक दूजे के सम्क्ष
पर शब्दों की क्यों कमी सी है
जान पहचान तो लाखों से है
पर अपनो की क्यों कमी सी है
रास्तों पर अकेले चल दिए
मार्गदर्शकों की कमी सी है
सूर्योदय तो रोज होता है
पता नही क्यों रोशनी की कमी सी है
कुछ कमी सी है 
आंखों में नमी सी है
क्या तुम होते तब सब सही होता
ये प्रश्न सिर्फ खुद से नही 
पढ़ने वाले आप सभी से है

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