वो शख़्स जो


वो शख़्स जो कभी था ही नही 
महसूस क्यों होती है उसकी कमी
जो वक्त कभी अपना था ही नही
क्यों लगे की जिंदाजी है बस वही
जी रहे ही अतीत, भविष्य में
और गिन रहे हो वर्तमान की कमी

तुम खुद एक दुनिया हो खुद में
इस दुनिया की भी सोचो कभी
पर घर की मुर्गी दाल बराबर
दूसरों की दुनिया तुम्हे लगे हसीं

बेचैनी के ये मेंढक मचाने लगे उत्पाद
आखों के समक्ष घूम जाता वर्तमान है
मस्तिष्क रटे बस एक ही सवाल
जिसका नही अस्तित्व वह क्यों याद आता है

चढ़ता उतरता ज्वार मन के भीतर
झिंझोड़ के रख देता मुझको
तेरे ख्यालों ने मुझे करा है अगवाह
क्या मेरा पता मालूम है तुझको

कभी लगे की में सूरज की गाथा
गाता नही है जिसे कोई
तुम ठहरे चंद्रमा अमावस की
पुछू पता पर न मिले कहीं

कारवां हो तुम साहिल हूं मैं
अधूरा सही कामिल हूं मैं
जो सोचे तू की मैं भूल गया 
वो तेरी हर हिचकी में शामिल हूं मैं
तू वह कहानी है जिसे पढ़ना चाहे सभी
अफसोस उसे मैंने अभी लिखी नही


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