प्रतिबिंब


सुबह के बरसात ने कुछ यू भिगाया
पानी की बूंदों मैं अपना प्रतिबिंब पाया
समझ से मेरे बिल्कुल परे है
जो अंतर्मन है वो सामने मेरे है
क्या बादल किसी का मन पढ़ सकते है 
दुख सुख द्वेष सब हर सकते है
शायद हमें वो समझ पता है
रोना हम चाहे, पानी वोह बरसता है
क्या उसका मन भी हम जैसा अशांत है
क्या हो सकता है उसका दुख?
क्या उसके भीतर भी कोई राज है
हो सकता है वो मनुष्य है कोई
अब भी अधूरे जिसके कुछ ख्वाब है
वरदान है ये या है एक श्राप
कोई घर नही बस घूमे हर प्रांत है
हमारी भाषाएं अलग है अलग लिबाज़ है
पर हम सब इतने परे नही 
जितना सोचते हम आप है
गर बादल हमारा प्रतिबिंब है
तो न मैं पराया हूं और न आप है
क्योंकि बादल सारे विष्व के
भली भाती एक समान है



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