खयाल


इतने खयाल मेरे मान मैं
आ कहा़ से रहे है
गर मैं नही इनकी मंजिल 
तो ये जा कहा़ रहे है
लोग कहते है लिखने का मर्ज है
पर बढ़ रहा शब्दों का कर्ज है
पता नही मै दिल से कब हस्सा था
या ठहाको की आवाज 
दिल तक पहुंच न पाई
वास्तविकता से बेपता
या यही है वास्तविकता
जाने अनजाने मैं हो रहा सब मुंतशिर है
पता नही किन उम्मीदों का हूं मुंतजिर मैं
कस कर थामा हूं हथेली अपनी
फिर भी सब छूटता जा रहा है
जितना रोकना चाहो तुम उसको
वो उतना ही दूर जा रहा है
पर क्यों अकेलापन खास नही
हवा तो है पर श्वास नही
क्या इतना पसंद है किसी के आधीन रहना
जो तुम्हे खुद के अस्तित्व का ज्ञात नही
हवा की तरह जो यह जिंदगी है
कुछ लोग इसमें इतर की भाती होते है
कुछ को मिल जाता है सबकुछ
कुछ सब पाकर भी खोते है
सक्षम हो संतुष्ट रहो
अकेले हो तुम शेर बनो
जब खुद पर आए तुम को शंका
तुम खुद अपनी ढाल बनो

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