घर तक का फासला


आज घर तक का फासला थोड़ा लम्बा लगा
मानो जैसे कुछ पल के लिए
समय ठहर कर मुझ से बातें कर रहा है
आस पास की आवाज कोलाहल
मुझे साफ साफ सुनाई दे रही थी
जो पहले केवल शोर सा महसूस होता है
मेरे कदम मुझे बहोत भारी लग रहे थे
मानो जैसे मेरा तन टूट रहा हो दर्द के मारे
इतना धीमा मैं आज तक नही चला
जैसे की घर जाने की अफरा तफरी ही न हो
जबकि मेरा मन बिल्कुल इसके विपरित चाह रहा था
मेरे एक तरफ स्कूटर वाला तेजी के पे पे करते हुए निकला
तो एक तरफ एक चाचा मुझ से भी धीमी गति मैं जा रहे थे
मेरे इस सफर के मानो साथी की तरह 
आस पास के दुकानों की गड़बड़ 
ग्राहकों की हलचल 
और कुछ आवारा युवकों की हंसी का शोर
एक एक बात मानो समय खुद मुझसे बोल रहा है
मुझे ऐसा लगने लगा की मेरे आसपास के लोग
या तो मुझ से भाग रहे थे या मेरा पीछा कर रहे थे
शायद उनको भनक लग चुकी थी की 
समय मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा है
सब्जी वाले सड़क किनारे चिल्ला चिल्ला कर 
सब्जी बेच रहे थे
एक बार को लगा की आमने सामने वालों मैं
ऊंचा चीखने की स्पर्धा लगी हो
बेचारे बेजुबान शेरू, टॉमी,रॉकी,
बेचारे नहीं बल्कि सड़क के मालिक लग रहे थे
मेरा तन अब भी टूट रहा था
पैरो को कांक्रीट की सड़क ने जकड़ लिया था
पर मन ही मन में अपने बिस्तर को पुकार रहा था
मेरा शरीर आग सा तप रहा था
और हाथ पैर सुन हो गए थे
तब मैं असलियत समझा की ये सड़क और समय
मुझे बंदी न बना कर बरी कर रहे थे
मेरी पीड़ा से, चढ़े ज्वार से 
मेरा हाथ पकड़ के घर पहुंचा रहे थे

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