स्त्री


स्त्री जितनी शक्तिशाली है
समाज ने उतना ही
शक्तिहीन बना दिया है
हौसला जिसे देना था
उसे कोना दिखा दिया है

वोह प्यारी सी मुस्कुराहट
जो दिल मैं उतरती थी
लापता है कहीं
न जाने क्यों दिखती नही

वो स्वाभिमानी हैं
अभिमानी है
पावन पवित्र काया
जैसे गंगा का पानी है

कोफ्त होती है बहुत
देखकर आज की दशा
पूजा करते है जिसकी 
उसी को देते हम सजा

जो बेटी बनकर जन्मी थी
अब बहु बन जाती है
अपनो से नाता तोड
पराए घर जाती है

छूट जाता है सुख का मोह
आकांक्षाओं को दफना देती है
जो सुख बेटी को देते है 
क्यों बहु से मुंह फेरते है
न जाने क्या प्रभु की चेती है
स्त्री न बहु बन पाती, न बेटी है

जो पुरषों से सदैव श्रेष्ठ है
पर मिलते केवल कष्ट है
वो देवी जिसकी जय करते हो
पर हृदय में उसके भय करते हो
जब उसने न तुमसे कभी कुछ मांगा
क्यों हक उसका तुम हर लेते हो

स्त्री का जीवन सरलता है
मन में जिसके तरलता है
नही चाहिए तुम्हारे एहसान
न इजाजत तुम्हारी और
न तुम्हारा ज्ञान

प्रेम कुछ पल,बस सुख है
राह के कंकड़ हटाए
वही पुरुष जो ताकत बने
ना की खामियों को बढ़ाए
वो है कुटुंब समृद्ध सदा
जो बेटियों का घर बना

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