धूप
जिंदगी को उजागर करने आया
और मैं ठहरा कायल छाव का
उस धूप से जो बैर किया
जो सोचा की मैंने सही किया
पर अपने को मैने गैर किया
ये उस कड़वी दवा की भांति है
जो हलक से नही उतर पाती है
है धूप छाव जैसे शहर गांव
तू दबे पाव हर डगर राह
करे इंतजार मैं न समझ पाऊं
तू हाथ वो जो मेरे सिर पड़े
हूं अंजान मैं, तू दुनिया से लड़े
है कष्ट मुझे पर न जान पड़े
मैं उधमी जितना हूं
और तू न डांट सके
और जो डांट पड़े तो शामत है
जो छाव मेरी ही माता है
तो धूप पिता का पद पाता है
Comments
Post a Comment