व्यस्त


आज कल हम सब थोड़े व्यस्त रहते है
थोड़ा कम सुनते है थोड़ा कम कहते है
एक समय था जब गप्पे लड़ने को समय कम पड़ता
कितनी सारी बातें और कितनी सारी यादें थी
पता नही कब यादें सारी बिसर गई
बातें यादों में तब्दील हो गई
न काम की खबर का घर का पता
पड़ोसी भी पूछे तू रहता है कहां
इसका जवाब तो मेरे पास भी नहीं
कुछ अपने दिमाग में हूं
कुछ दफ्तर तक के रास्ते पर
और कुछ लगा हुआ हूं ढूंढने 
उन बातों को , भूले बिसरे यादों को
उन दोस्तों को और उन मुलाकातों को
आज भी कभी कभी लगता है की
सब छोड़ कर चला जाता हूं 
दूर उस शहर अपने यारों से मिलने
फिर नंगे पैर सड़क पर दौड़ने
फिर कपड़े खराब कर मां की डांट खाने
पर भूल जात हूं की मेरा एक हिस्सा तो 
अब भी दफ्तर के रास्ते पर अटका हुआ है
एक हिस्से से तो मैं खुद अंजान हूं
फिर आधा अधूरा मैं क्यों भागू
मैं ठीक उसी तरह फसा हूं जैसे 
कुर्सी के चार पैरों में से एक को
कभी कुर्सी बनना ही नहीं था 
पर अब जब बन चुका है 
तो कुछ और बनने की गुंजाइश नहीं
जब तक वह टूट नही जाता है
और हम सब बस कहीं टूट न जाए 
इसलिए कुर्सी बन कर ही खुश रह जाते है
थोड़े ज्यादा व्यस्त हो जाते है




Comments

Popular Posts