शव की आत्मकथा


मैं अपने आप को ऐसी ऐसी जगहों पर पाता हूं
जहा शायद जीवित या श्वास लेता हूं व्यक्ति न जा पाए
या फिर ये कह सकते हो की कोई जीवित बचता ही नही
तो फिर यह प्रश्न आपके जहन में जरूर उठा होगा की
जब कोई साक्षी ही नही तो मैं कौन हूं
क्या मैं कोई वरदान प्राप्त भागीरथी हूं
या पुराणों में वर्णित किया कोई अमर महापुरुष
आप अपनी इस जिज्ञासा को विश्राम दीजिए
और मुझे मेरा परिचय देने की अनुमति दीजिए
मैं एक शव हूं, और ये मेरी आत्मकथा है

मैं बेहिसाब आसुओं का साक्षी हूं
पर कभी कभी ये भी मुझे नसीब न था
अनगिनत चूड़ियां मेरी छाती पर टूटी है
और कभी कभी किसी की आंखें तक न भीगी
मैंने सैकड़ों की भीड़ देखी
और अकेले भी मारा हूं
हां मैं पहले से ही मृत्य हूं, तो और कितना मैं मरता
गर थोड़ी सी बची होती मुझमें सांसे
तो अपने लिए मैं ही रो लेता

मेरे लिए सब अनजाने है
मैं बस दुःख को हूं जनता 
मैं वोह नही हूं जो था जीवित
मैं किसी को नही पहचानता
समझ न पता हूं ये कैसी विडंबना है
इंसान भी विचित्र है, राह न जाने किसकी देखता है
जब सुनने वाला सुन नही सकता 
क्यों दिल की बातें उसे तभी कहना है
शायद मैं नही समझ पाऊंगा
पीड़ा को, प्रेम को, भय को और द्वेष को
मेरे अस्तित्व का मुझे ज्ञात ही तब होता है
जब आत्मा देह से दूर होती है

मुझे कुछ लोग जला देते है
कुछ दफना देते
और कुछ छोड़ देते है प्रकृति के हवाले 
जहा चील गिद्ध और कउवे खा जाते है
मेरे कई रूप है कई आकार है
जितने आकार है उतने अंतिम संस्कार के प्रकार है
मैं दुनिया नही देख पाता पर दुनिया वालों को देखता हूं
जो रो रहे है मेरे समक्ष उन्हें हस्ता भी देखता हूं
कभी मेरी आंखे अस्पताल में खुलती 
कभी नदियों में नालों में खुलती
कई कदमों ने मुझको कुचला भी है
और कई कांधों ने मुझे संभाला भी है
इस शव की बाते सुन रहे हो
मृत्य का मन पढ़ रहे हो
शुक्रिया तुम्हारी सांसों का
जिनका ये शरीर क्षणभर पहले मोहताज था




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