घबराहट


आज किताब उठाते उठाते
मेरा दिल थोड़ा घबरा रहा था
जिस उद्देश से मैंने यह निर्णय लिया
क्या उसका परिणाम वही पहले जैसा होगा
मैं किताब बंद कर देता हूं
नही,नही...मैं उसे खुला छोड़ देता हूं
यह सोचकर की
कमस्कम उसे फिर से खोलने की घबराहट तो नही होगी

मेरा दिमाग दो हिस्सों में बटा हुआ है
और दोनो के चारों ओर एक दीवार खड़ी है
न समय मेरे लिए रुकेगा न मेरे साथी
पर पाता नही मैं क्यों रुका हूं
क्या मैं खुद के लिए रुका हूं
मैं अपने अतीत से की अपने भाविष्य से आकार
अपना हाथ थामूंगा और जीवन में आगे बढूंगा
या मुझे एक हार की तलाश है,
जो मुझे विवश करदे जितने को
पर ऐसी विवशता क्यों चाहिए

क्यों हमेशा ऊपर उठने के लिए गिरना जरूरी है
क्यों डूबकर ही तैरना सीखें
क्यों अंधकार ही सूर्य का महत्त्व समझाता है
क्यों बाहर निकलने पर घर ज्यादा भाता है
क्यों किसी के छूट जाने पर ही 
उसके साथ की याद आती है
क्या किसी बात का होना पर्याप्त नहीं,
उसकी अहमियत समझने के लिए

पर फिर मेरा दिल घबरा जाता है
और मन शांती केवल कलम में पाता है
किताब के पन्नो को हवा पलट रही थी
और मैं उस घबराहट को फिर महसूस करने के लिए
स्याही के खत्म होने का इंतजार कर रहा था

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