क्रोध और जिभ्या


ये ज़बान एक मास का टुकड़ा है
इसे संयम में रखने का ही दुखड़ा हैं 
कभी कभी हैं गुड सी मीठी
कभी ये औषधी कड़वी है

सच कहना एक बात अलग है
झूठ के गुण गाना है दूजा
क्यों बकते हों बात गलत तुम
जब दिमाग को तुम्हारे कुछ भी न सूझा

कुछ कहकर कहते हो, कहना कुछ है
कह बात गलत, न रहते चुप हो
जब मतलब तुम्हारा यह था ही नही
तब जिभ्या मैं क्यों ये बात दबी थी

तुम्हे जीवन मेरा क्यों ढोंग लगे
क्यों कम वजन मेरी बातों का लगे
हां सरल नही है जीवन मेरा
पर बड़ी सरल मेरी वाणी है
गर तुम इसको हो तुच्छ समझते
तो क्या व्यर्थ हमारी ये कहानी है

इस जुबान ने एक इंसान को तोडा
स्वाभिमान को तोड़ कहीं का न छोड़ा
जिस मुख से प्रेम के वादे सुनते
है क्रूर उसकी अब वाणी क्यों
है गिरा था दिल सरांखे जिसके
आज उसी के आंखों में गिरे है क्यों?

ये क्रोध बड़ी ही कुटिल आग है
निगला जिसने सारा समाज है
है क्षतिशून्य ये नाजुक सी जिभ्या
पर भीषण आग लगाती है
सोच समझ कर अब से कहना 
क्योंकि हमने भी अपनी जिभ्या संभाली है



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